गजल

Thursday, 26 December 2013

यों नये साल शुरुआत हो

नव्य निर्माण की बात हो ।
यों नये साल शुरुआत हो ।

खत्म हो नफरतों की निशा
अब मधुर प्यार की प्रात हो।

ले बहाना धरम-जाति का
अम्न पर फिर न आघात हो।

दीप सुख का जले हर कहीं
दुख के तूफ़ान की मात हो।

चाल दुश्मन की हो ना सफल
दूर घर की भितरघात हो ।

हम मिलें मुस्कुराते हुये
दोस्त जब भी मुलाकात हो।

अब नहीं वो खुशबुएँ , त्यौहार में

खो गईं सब , आपसी तकरार में ।
अब नहीं वो खुशबुएँ , त्यौहार में।

बात अच्छी, रह गई बस बात भर
कब किया शामिल इसे, व्यवहार में।

बांग मुर्गे की, न चिड़ियों की चहक
हो कहाँ से ताजगी, भिनसार में ।

कत्ल, दंगे, रेप, घोटाले , गबन
अब पढ़ोगे और क्या, अखबार में।

स्वार्थ की किश्ती बचाते हम फिरे
छोड़कर नाते सभी, मंझधार में ।

एक दो बच्चे, मियां–बीबी फक़त
है बचा ही कौन अब, परिवार में।

साँच का, जिनपर शनीचर है

साँच का, जिनपर शनीचर है ।
जिन्दगी उनकी, फटीचर है ।

है हरी, क्यारी फरेबों की ।
सादगी का खेत, बंजर है ।

दाल पतली भी, नहीं 'जन' को
माल 'जनसेवकों' को, तर है ।

भ्रष्ट हैं जो, ऐश है उनकी
सूद पर, ईमान का घर है ।

देख जनपथ पर कभी आकर
स्वर्ग है गर, तो यहीं पर है ।

अब उसूलों के लिये जीना
बस खुशी से, खुदकुशी भर है।

Friday, 20 December 2013

रावण ही सिरमौर दिखाई देता है

असुरों सा हर तौर दिखाई देता है ।
छल–प्रपंच का दौर दिखाई देता है ।

उनको अपनी चुपड़ी में सुख कब जिनको
बड़ा पराया कौर दिखाई देता है ।

इंसां फितरत से मामा मारीच हुआ
मन कुछ है तन और दिखाई देता है ।

पुरुषोत्तम की नगरी में ही आज नहीं
मर्यादा को ठौर दिखाई देता है ।

भटक रहे हैं राम अभी भी जंगल में
रावण ही सिरमौर दिखाई देता है

Thursday, 26 September 2013

लोग यहाँ के अफवाहों को कान नहीं देते।

सबके पाँवों को रस्ते आसान नहीं देते ।
भगवन सारे भक्तों को वरदान नहीं देते।

दहलीजों पर चहल–पहल होती बड़भागों के
हर दरवाजे पर दस्तक मेहमान नहीं देते ।

मन के अच्छे लोग लाड़ले सबके हो जाते
मँहगे घर–कपड़े हमको पहचान नहीं देते ।

संतोषों की खटिया पर मिलतीं निधड़क नींदें
लालच के बिस्तर सुख की मुस्कान नहीं देते।

इस बस्ती का भाईचारा साबुत है अब भी
लोग यहाँ के अफवाहों को कान नहीं देते।

जिज्ञासा का पार्थ चाहिये भक्ति–भाव–रथ पर
कृष्ण सभी को तो गीता का ज्ञान नहीं देते ।

राजनीति की लंका में हम आ पहुँचे शायद
दूर–दूर तक दिखलाई इंसान नहीं देते ।

Wednesday, 18 September 2013

तअल्लुक टूट जाते हैं

उगे हम पत्थरों के बीच भी खांटी रवानी से।
हमारा वास्ता कब था तुम्हारे खाद–पानी से ।

खड़ा हूँ सामने खुद परख लो अच्छा–बुरा जो हूँ
मुझे आँको नहीं मेरी किसी बीती कहानी से ।

सही होते हैं हम अक्सर गलत वह भी नहीं होता
तअल्लुक टूट जाते हैं जरा सी बदगुमानी से ।

उसे भी बरगदों ने स्वार्थ के कर ही दिया बौना
बड़ी उम्मीद थी सबको सियासत में जवानी से।

बहत्तर का बुढापा हो कि सत्रह का हो नाबालिग
दुशासन की उमर साबित है उसकी छेड़खानी से।

Monday, 26 August 2013

दाग अच्छे हैँ

गर सियासत में घुसे हों, नाग अच्छे हैं ।
माननीयों पर लगें ,  तो दाग अच्छे  हैँ ।

कुछ निवाले चुराकर,हैं जेल में मुफलिस
लूटते जो मुल्क को, वो साफ–सच्चे हैं।

अर्दली ने चाय पी तो, घूसखोरी है
रिश्वतें मंत्री को, रस्मी भेंट–भत्ते हैं।

बास की एम्बेसडर जाकर वहीं फिसली
फाइलों पर जिस जगह चकरोट पक्के हैं।

रच दिये हैं व्यूह नफरत के,मियाँ अब तो
सियासी रणबाँकुरों की जंग फत्तेह है।

Wednesday, 14 August 2013

मोहन–बम चुप्पी वाले

नाक तले गड़बड़झाले हैं।
पर मुखिया के मुँह, ताले हैं।

काम सभी उनके हैं काले 
जो उजली बातों वाले हैं।

डर उनसे ही है लुटने का
जो गुलशन के रखवाले हैं।

भैंस हमेशा से है उनकी
जो लाठी–डंडों वाले हैं।

गटर सियासत का है जिसमें
मिलते सब गँदले नाले हैं।

अम्न बहाली के रस्तों में
पोशीदा शातिर चालें हैं।

सरहद को फौरी उत्तर में
मोहन–बम चुप्पी वाले हैं

Tuesday, 5 March 2013

बात उस तक जायगी


आग में उसके हृदय की दह सको तो।
बात उस तक जायगी जो कह सको तो।

पीर तो बँटती नहीं पर खुशी होगी
हाथ मेरा इस घड़ी तुम गह सको तो।

साथ मेरे स्वप्न बुनने चले आना
पत्थरों में हकीक़त के डह सको तो।

महकती हैं बुरीअच्छी सभी यादें 
वर्कजीस्त सलीके से तह सको तो।

आसमां तक हूँ खड़ा मैं तुम्हारे संग
तुम ज़मीं तक मेरी खातिर ढह सको तो

नेह से बनते हैं घर ईंटों से नहीं
झोपड़ी भी है महल गर रह सको तो।

मन हो जाता है व्यापारी



क्या कहने से क्या सुनने से हम कितनी बार मिले।
हमको या तुमको जल्दी थी हम जितनी बार मिले ।

इस तपती दोपहरी को ही आओ कुछ पल जी लें,
क्या जाने फुरसत हो ना हो जब ठंडी शाम ढले ।

इन रूठी पलकों के पीछे की चाहत को पहचानो
यह प्यार हमारा है तुमपर मत समझो यार गिले।

नेहों की पावन कुटिया सी जब याद तुम्हारी आती
इक खुशबू से भर जाते हैं मन के वीरान किले ।

है रात भली कुछ दिल से कहने,दिल की सुनने को
मन हो जाता है व्यापारी हर दिन जब धूप खिले ।

हजारों हैं रिश्ते, जो गिनती में तुम हो



तुम्हारे बिना तो, ये जीवन जहर है।
हूँ जिन्दा, तुम्हारी दुआ का असर है।

शबीहात से तो बहलता नहीं दिल
जवाँ है मुहब्बत, न अब कम–उमर है।

भरी बज्म में भी, ये तन्हा मेरा मन
शहर की सड़क पर खड़ा इक शज़र है।

हजारों हैं रिश्ते, जो गिनती में तुम हो
नहीं तुम, तो रिश्तों की गिनती सिफ़र है।

ये आले, ये चौखट, ये रातों के सपने
ये मेरा नहीं, तेरी यादों का घर है।

नाम को, होली मिलना भी, कोई बात हुई



ईद हिन्दू की, मुसलमाँ की होली आज हुई।
ले के त्यौहारों को लड़ना भी, कोई बात हुई।

फासले रक्खो, गुनाहों से, गुनहगारों से
ये मजहबों का फासला भी, कोई बात हुई।

मसअले हैं बहुत, इंसां की तरक्की से जुड़े
काशी, काबा का मसअला भी, कोई बात हुई।

फैसले, हम वही मानेंगे जो संसद में होंगे
धर्म–संसद का फैसला भी, कोई बात हुई।

यूँ मिलो अब गले कि दिल, दिल से मिल जायें
नाम को, होली मिलना भी, कोई बात हुई।

वो ऐसे, अपनी भूलों की सफाई दे रहा है


ज़माने के गुनाहों की दुहाई दे रहा है।
वो ऐसे, अपनी भूलों की सफाई दे रहा है।

पुलोवर जिन्दगी का तो वही आकार लेगा
उसे तू , जैसे कर्मों की सलाई दे रहा है।

पड़े हैं मोह के जाले तुम्हारी जेहनियत पर
नजर को तो, बुरा–अच्छा दिखाई दे रहा है।

वो बूढ़ा बोझ था जिसको,वही, मरने पे उसके
दहाड़ें मारकर, शव को विदाई दे रहा है।

रिआया को रियायत के सियासी वादे, जैसे
जिबह से छूट, बकरे को, कसाई दे रहा है।

किसी दिन तो कोई लम्बी बुराई पायेगा
जहाँ को वो,खुले दिल से भलाई दे रहा है।

Saturday, 2 March 2013

मन तो तुलसी नहीं हो सका


    उनके दर दूध मेवे बरसते रहे।
    और हम जूठनों को तरसते रहे।

    अपने घर में रखी खीर औ इडलियाँ
    भात वादों के हमको परसते रहे।

   धरती तक बूँद इक भी नहीं आ सकी
   मेघ तो आसमां पर गरजते रहे ।

   हमने सौ झूठ बोले बिना ख़ौफ के
   एक सच बोलने में लरज़ते रहे ।

   मन तो तुलसी नहीं हो सका आज भी
   नाम तो राम का रोज भजते रहे ।