गजल

Thursday, 26 December 2013

साँच का, जिनपर शनीचर है

साँच का, जिनपर शनीचर है ।
जिन्दगी उनकी, फटीचर है ।

है हरी, क्यारी फरेबों की ।
सादगी का खेत, बंजर है ।

दाल पतली भी, नहीं 'जन' को
माल 'जनसेवकों' को, तर है ।

भ्रष्ट हैं जो, ऐश है उनकी
सूद पर, ईमान का घर है ।

देख जनपथ पर कभी आकर
स्वर्ग है गर, तो यहीं पर है ।

अब उसूलों के लिये जीना
बस खुशी से, खुदकुशी भर है।

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