गजल

Tuesday, 5 March 2013

मन हो जाता है व्यापारी



क्या कहने से क्या सुनने से हम कितनी बार मिले।
हमको या तुमको जल्दी थी हम जितनी बार मिले ।

इस तपती दोपहरी को ही आओ कुछ पल जी लें,
क्या जाने फुरसत हो ना हो जब ठंडी शाम ढले ।

इन रूठी पलकों के पीछे की चाहत को पहचानो
यह प्यार हमारा है तुमपर मत समझो यार गिले।

नेहों की पावन कुटिया सी जब याद तुम्हारी आती
इक खुशबू से भर जाते हैं मन के वीरान किले ।

है रात भली कुछ दिल से कहने,दिल की सुनने को
मन हो जाता है व्यापारी हर दिन जब धूप खिले ।

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